भारत के शास्त्रीय नृत्य (Indian Classical Dance UPSC in Hindi) (8 Classical dance forms of India UPSC)
Table of Contents
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भारत के
शास्त्रीय नृत्य का इतिहास (History of Indian Classical Dance in Hindi)
भारत में प्राचीन
काल से नृत्य एक समृद्ध और प्राचीन परम्परा रही है। विभिन्न कालों की खुदाई, शिलालेखों,
ऐतिहासिक वर्णन, राजाओं की वंश परम्परा तथा कलाकारों, साहित्यिक स्रोतों, मूर्तिकला
और चित्रकला से नृत्य के
व्यापक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। पौराणिक
कथाएं और दंतकथाएं भी इस विचार का समर्थन करती है कि भारतीय कला के रूप में नृत्य ने धर्म तथा समाज में एक महत्वपूर्ण
स्थान बनाया था ।
साहित्य में
नृत्य का पहला संदर्भ वेदों से मिलता है। नृत्य का एक संगठित इतिहास महाकाव्यों,
अनेक पुराण, कवित्व साहित्य तथा नाटकों से पुनर्निर्मित किया जा सकता है । भारत में
12वीं सदी से 19वीं सदी तक नृत्य
के अनेक प्रादेशिक रूप हैं, जिन्हें संगीतात्मक खेल या संगीत-नाटक कहा जाता है ।
संगीतात्मक खेलों में से वर्तमान शास्त्रीय नृत्य-रूपों का उदय हुआ है ।
स्थलों की खुदाई
से दो मूर्तियां प्रकाश में आई, जिसमे
एक मोहनजोदड़ों काल की कांसे की मूर्ति और दूसरा हड़प्पा काल (2500-1500 ईसा पूर्व)
का एक टूटा हुआ धड़ है।
यह दोनों मूर्तियां नृत्य
मुद्राओं की प्रारंभिक सूचक हैं ।
भरतमुनि का नाटय-शास्त्र
भरतमुनि का
नाटय-शास्त्र शास्त्रीय नृत्य पर प्राचीन ग्रंथ के रूप में उपलब्ध है, जो नाटक,
नृत्य और संगीत कला की एक स्रोत पुस्तक है । आमतौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि
दूसरी सदी ईसापूर्व- दूसरी सदी ईसवीं सन् नाटय-शास्त्र की रचना का समय है । नाटय शास्त्र
को पांचवें वेद के रूप में भी जाना जाता है । भरतमुनि के अनुसार इस वेद (नाटय-शास्त्र) का विकास ऋृग्वेद से
शब्द, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से मुद्राएं और अथर्ववेद से भाव लेकर किया है ।
नाटय-शास्त्र
में सूत्रबद्ध शास्त्रीय परम्परा की शैली में नृत्य और संगीत नाटक के अनुल्लंघनीय
भाग हैं । नाटय की कला में नृत्य और संगीत के सभी मौलिक अंशों को रखा जाता है। समय
के साथ-साथ नृत्य स्वयं नाटय से अलग हो गया और स्वतंत्र तथा विशिष्ट कला के रूप
में प्रतिष्ठित हुआ ।
भरतमुनि कृत
नाट्य शास्त्र को भारतीय शास्त्रीय नृत्य का आधार कहा जाता है। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र
के अतिरिक्त अभिनय दर्पण, अभिनय भारती, नाट्य दर्पण, भाव प्रकाश आदि पुस्तकें भी लिखी
गयीं हैं ।
प्राचीन शोध-निबंधों
के अनुसार नृत्य में तीन पहलुओं पर विचार किया जाता है- नाटय, नत्य और नृत्त । नाटय
में नाटकीय तत्व पर प्रकाश डाला जाता है । नृत्य विशेष रूप से एक विषय या विचार का
प्रतिपादन करने के लिए प्रस्तुत किया जाता है । नृत्त शुद्ध नृत्य है, जहां शरीर
की गतिविधियां न तो किसी भाव का वर्णन करती हैं, और न ही वे किसी अर्थ को प्रतिपादित
करती हैं । नृत्य और नाटय को प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करने के लिए नवरसों का संचार
करने में निपुण होना चाहिए। यह नवरस हैं- श्रृंगार, हास्य, करूणा, वीर, रौद्र, भय,
वीभत्स, अदभुत और शांत ।
सभी
नृत्य शैलियों द्वारा प्राचीन
वर्गीकरण- तांडव और लास्य का अनुकरण किया जाता है । तांडव पुरूषोचित, वीरोचित, निर्भीक
और ओजस्वी है । लास्य स्त्रीयोचित, कोमल लयात्मक और सुंदर है ।
शताब्दियों के विकास के साथ भारत में नृत्य विभिन्न भागों में विकसित हुआ । इनकी अपनी पथृक शैली ने उस विशेष प्रदेश की संस्कृति को ग्रहण किया; प्रत्येक ने अपनी विशिष्टता प्राप्त की । इस प्रकार नृत्य कला की अनेक प्रमुख शैलियां बनीं; जिन्हें आज भरतनाट्यम, कथकली, कुचीपुड़ी, कथक, मणिपुरी, सत्त्रिया, मोहिनीअट्टम ओर ओडिसी के रूप में जानते हैं ।
भारत के शास्त्रीय नृत्य और सम्बंधित राज्य (Indian Classical Dance and State)
भारत
के संगीत नाटक अकादमी ने
मुख्यतः 8 शास्त्रीय नृत्य के नाम सुझाये
हैं-
क्र. सं. |
भारत के शास्त्रीय नृत्य |
राज्य |
1. |
भरतनाट्यम |
तमिलनाडु |
2. |
कत्थक |
उत्तरप्रदेश |
3. |
कत्थकली |
केरल |
4. |
कुचिपुड़ी |
आंध्र प्रदेश |
5. |
ओडिसी |
उड़ीसा |
6. |
मणिपुरी |
मणिपुर |
7. |
सत्त्रिया |
सत्त्रिया |
8. |
मोहिनीअट्टम |
केरल |
1. भरतनाट्यम नृत्य (Bharatnatyam Dance in Hindi) (Classical Dance of Tamil Nadu)
भरतनाट्यम्
का उद्भव और विकास तमिलनाडु
और उसके आस-पास
के मंदिरों से हुआ। जो
मंदिरों को समर्पित देवदासियों की नृत्य कला से उपजा है और इसे पूर्व में सादिर, दासी
अट्टम और तन्जावूरनाट्यम
के रूप में जाना जाता था। यह एकल
नृत्य फॉर्म है, जिसका प्रदर्शन
मुख्यतः एक स्त्री करती है।
भरतनाट्यम भारत का सबसे पुराना (लगभग 2000 वर्ष) शास्त्रीय नृत्य है। यह शास्त्रीय
नृत्य भरत के नाट्यशास्त्र पर आधारित है । इस नृत्य कला
का प्रयोग पल्लव और चोल काल
में चरम पर था
और 19वी सदी के
अंत तक पाण्ड्य, नायक
और मराठा शासकों का संरक्षण इसे
मिलता रहा।
19वीं सदी तक
भरतनाट्य भारतीय मंदिरों में होता रहा, और फिर इस नृत्य में
तमाम विसंगति के कारण 1927 में
देवदासी अधिनियम द्वारा मद्रास (तमिलनाडु) के मंदिरों में
सभी तरह के नृत्य
पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
20वीं
सदी में रुक्मिणी देवी
अरुण्डेल और ई कृष्णा
अय्यर ने इसके पुनरुद्धार
के लिए प्रयास किया
और 1935 में मद्रास में
थियोसोफिकल सोसायटी में एक अंतरराष्ट्रीय
सभा से पहले प्रदर्शन
भी किया। उन्होंने 1936 में भरत नाट्यम
में एक प्रशिक्षण संस्थान,
कलाक्षेत्र अकादमी की स्थापना भी
की। तब से, इसकी
लोकप्रियता में वृद्धि होनी
शुरू हुई और कुछ
ही वर्षों में इसने अपनी
लोकप्रियता को पुनः प्राप्त कर लिया।
भारतनाट्यम
प्रस्तुति का वर्तमान
रूप प्रदान करने का श्रेय
'तंजौर के चार बधुओं'
(पौन्नइया, चिन्नइय्या, शिवानंदम
और वेदिवलु) को है। 20वीं
शताब्दी में रवीन्द्रनाथ टैगोर,
उदयशंकर और मेनका जैसे
कलाकारों के संरक्षण में
भारतनाट्यम नाट्यकला पुनर्जीवित हुई । भारतनाट्यम भारत
का ऐसा पहला पारम्परिक नृत्य
है जिसे देश और
विदेश दोनों में व्यापक
स्तर पर प्रस्तुत किया जाता
है।
भरतानाट्यम
नृत्य के विषय मानवीय और
ईश्वरीय प्रेम जैसे
विषयों को समाहित करती
है और सामान्यत:
इन्हें श्रृंगार और
भक्ति के शीर्षकों में
वर्गीकृत किया जाता है।
इस नृत्य में प्रर्दशन केवल एक
स्त्री द्वारा किया जाता है।
भरतानाट्यम
नृत्य के दो भाग
हैं पहला भाग नृत्य
और दूसरा अभिनय । इस नृत्य
का प्रदर्शन प्रायः संगीत और गायक के
साथ होता है। भरतनाट्यम
का संगीत दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत से संबंध रखता है।
भरतानाट्यम
में नृत्य क्रम इस प्रकार
होता है-
- · आलारिपु (कलि का खिलना),
- · जातिस्वरम (स्वर जुड़ाव),
- · शब्दम (शब्द और बोल),
- · वर्णंम (शुद्ध नृत्य और अभिनय का जुड़ाव),
- · पदम् (वंदना एवं सरल नृत्य)
- · तिल्लाना
(अंतिम अंश विचित्र भंगिमा
के साथ)।
भरतानाट्यम
की नृत्य गायन प्रस्तुति में कम
से कम एक गायक,
एक मृदंग वादक और एक
बासूंरी अथवा वायलिन अथवा
वीणा वादक शामिल होता
है। इसमें एक नट्टूवनर अथवा
नृत्य निर्देशक भी
होता है जो पीतल
के मजीरों की जोड़ी को
बजाते हुए नृत्य
शब्दांशों को गाता है।
भरतनाट्यम नृत्य की तकनीक में हाथ, पैर,
मुख, व शरीर संचालन
के समन्वयन के
64 सिद्धांत हैं।
प्रारंभिक
समय में इस नृत्य
में हिंदू परंपरा के वैष्णव, शैव
और शक्ति आदि का प्रभाव
देखने को मिलता था,
लेकिन वर्तमान समय में यह
शास्त्रीय नृत्य किसी धर्म विशेष
पर आधारित नहीं है ।
2. कत्थक नृत्य (Kathak Dance in Hindi) (Classical Dance of Uttar Pradesh)
कथक उत्तर
भारत का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है, जो आज मुख्य रूप से भारत के दो राज्यों उत्तर
प्रदेश और राजस्थान में प्रचलन में है। साथ
ही मध्य प्रदेश और भारत के
पश्चिमी और पूर्वी भागों
में चलन में है।
कत्थक नृत्य (Kathak Dance) तीन अलग अलग रूपों में पाया जाता है।
यह तीन अलग अलग रूप तीन अलग-अलग स्थानों (बनारस, जयपुर-राजस्थान और लखनऊ) में किय जाने
के कारण है।
संस्कृत
भाषा के “कथा” शब्द से कत्थक शब्द की उत्पति हुई है,
जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। संस्कृत भाषा में कथा कहने वाले को “कत्थक” कहा जाता है ।
ऐसा माना जाता है
कि इसका संबंध कथाकारों
(कथा वाचकों) से है जो
प्राचीन समय से आम
लोगों को रामायण और
महाभारत महाकाव्यों और पौराणिक
साहित्य जैसे धार्मिक
ग्रंथो की कथाएं सुनाया
करते थे और अपनी कथा को एक नया रूप देने के
लिए नृत्य करते थे ।
कत्थक की उत्पति
भक्ति आन्दोलन के समय हुई। भक्ति आन्दोलन के समय इसमें भगवन श्री कृष्ण के बचपन की
तथा अन्य कहानियों को नृत्य के माध्यम से दिखाया जाता था ।
धीरे धीरे इस
नृत्य का विकास हुआ और 16वीं सदी के आस-पास यह कला दरबारी परिदेश के रूप में रूपान्तरित
हो गई और मुगल शासनकाल के दौरान यह अपने चरम पर पहुंच गयी।
हिन्दु धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषयवस्तुओं का नाटकीय
प्रस्तुतीकरण किया जाने लगा। 16वीं शताब्दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को
कथक नृत्य की वेशभूषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
इसके बाद
19वीं सदी में लखनऊ, जयपुर के राज दरबार तथा अन्य स्थान कथक नृत्य के मुख्य केन्द्रों
के रूप में उभरे और इसका विकास एक परिष्कृत कलारूप में हुआ और कथक ने वर्तमान स्वरूप
लिया।
अवध के अंतिम
नवाब वाजिद अली शाह के समय में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई और इसमें ग़ज़ल और
ठुमरी के समायोजन का भी प्रयास किया गया। कत्थक ही भारत का वह एकमात्र शास्त्रीय नृत्य
है जिसका सम्बन्ध उत्तर भारत तथा मुस्लिम संस्कृति से रहा है।
20वीं सदी के
दौरान कथक के प्रशिक्षण और व्यवहार को सार्वजनिक संस्थानों से अधिक से अधिक सहायता
मिलने लगी। इस नृत्य परम्परा के दो प्रमुख घराने हैं– लखनऊ घराना और जयपुर घराना।
यह नृत्य भगवान्
कृष्ण द्वारा किया गया था| इसलिए इसे नटवरी नृत्य भी कहते हैं| कत्थक नृत्य
(Kathak Dance) नृत्य के दो अंग हैं-
1. ताण्डव
2. लास्य
इस नृत्य में
पेरों, हाथों और आँखों की भाव भंगिमाओं के
द्वारा हिन्दू पौराणिक कथाओं को नृत्य के माध्यम से किया जाता है| यह नृत्य मुख्यतः
भगवान् कृष्ण की कथाओं पर आधारित रहता है|
कत्थक में पूरा
ध्यान लय पर दिया जाता है। इस नृत्य में पैरों की थिरकन (ततकार) और घूमने (चक्कर) पर
विशेष ध्यान दिया जाता है। कत्थक नृत्य (Kathak Dance) की मुख्य विशेषता इसकी पैरों
की चाल (movement) है। यह
मुख्यत: ताल-बद्ध नृत्य है। इसमें कथा का आरंभ अमाद से होता है और ये थाट, गट निकास,
परान और ततकार तक बढ़ती है । ये नृत्य भावात्मक और अभिव्यक्ति परक दोनों तरह का
होता है।
पारम्परिक
कथक का संगीत ठुमरी तथा अन्य गेय गीत- रूपों पर आधारित होता है और इसमें मुख्य रूप
से तबला, पखवाज़ और सारंगी जैसे संगीत वाद्ययत्रों का उपयोग किया जाता है। आजकल कथक
प्रस्तुतियों में सितार तथा अन्य तार वाले वाद्य यत्रों का प्रयोग भी किया जाने लगा
है।
वर्तमान में
कत्थक नृत्य में धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया जाता
है।
3. कथकली नृत्य (Kathakali Dance in
Hindi) (Classical
dance of Kerala)
कर्नाटक
के राजकुमार के संरक्षण में
17वीं शताब्दी में कथकली
(लघु-नाटिका) ने दक्षिण भारत
में केरल राज्य में अपना
निश्चित स्वरूप प्राप्त किया।
कत्थकली अभिनय,
नृत्य और संगीत का समन्वय है। कथकली नृत्य
की विषय-वस्तु
रामायण और महाभारत पर
आधारित होती हैं। इस
शास्त्रीय नृत्य में रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों और पुराणों के विशेष चरित्र
का नाटक के रूप में अभिनय किया जाता है। इस
नृत्य में कहानी के रूप में बुराई और अच्छाई के बीच युद्ध को दर्शाया जाता है। इस नृत्य
के गीत संस्कृत और मलयालम भाषा में होते हैं|
कथकली
नृत्य प्रस्तुत करने के लिए
कलाकार का पूर्णरूपेण प्रशिक्षित
होना आवश्यक है। यह पुरुष
प्रधान नृत्य है| इसमें अधिकांशत:
महिलाओं की भूमिका पुरुष
ही निभाते हैं। कुछ समय
से महिलाओं को कथकली में
शामिल किया जाने लगा
है।
कथकली
अपने पात्रों को उनकी प्रकृति
के अनुरूप वर्गीकृत करता है और
प्रतीकात्मक व्यक्तित्वों के रूप
में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए
श्रृंगार और परिधान का
उपयोग किया जाता है।
पात्रों के चेहरों को
उनके द्वारा प्रदर्शित चरित्र के अनुरूप रंगा
जाता है- नायको, राजाओं
तथा देवताओं के लिए हरा
रंग तथा दुरात्माओं
और क्रूरता के लिए लाल
और काला रंग प्रयोग
किया जाता है। पुरुष
पात्रों के लिए एक
बड़ा लहरदार घाघरा और विभिन्न
सुसम्पन्न साफे
इसके परिधान की मुख्य
विशेषताएं हैं।
कथकली
नाटकों में अभिनयकर्ता की
प्रस्तुति पूर्णरूप से
अवाक होती है अर्थात कथकली
नाटकों में अभिनयकर्ता कभी
बोलते नहीं हैं। चहरे
की भाव भंगिमाओं और हस्त मुद्राओं का उपयोग करके कहानी को प्रस्तुत किया जाता है।
इसमें नाट्य गीत को मंच
पर दो गायकों द्वारा
गाया जाता है जो
घंटे और मजीरे पर
समय, ताल का ध्यान रखते हैं
जबकि मंच पर ढोल
वादकों की एक जोडी
मौजूद रहती है।
चेहरे
के छोटे और बड़े
हाव भाव, नेत्रों का
संचलन, भंवों की गति, गालों, नाक और ठोड़ी
की अभिव्यक्ति पर विशेष रूप
से बारीकी
से
काम किया
जाता है तथा एक
कथकली अभिनयकर्ता (नर्तक) द्वारा विभिन्न भावनाओं को
बारीकी से प्रकट किया
जाता है। कत्थकली के
अलावा कोई और नृत्य
भौंहों, आंखों और निचली पलकों
का प्रयोग नहीं करता है।
कथकली
की पारंपरिक प्रस्तुति सांय काल में शुरू
होती है और यह
प्रात:काल में समाप्त होती है।
पहले पूरी रात में
केवल एक नाटक का
ही प्रस्तुतिकरण किया जाता था
लेकिन आजकल दो और
तीन नाटकों से चयनित दृश्यों को प्रस्तुत किया जाता
है। इसे केवल खुले आसमान के नीचे Perform
किया जाता है ।
4. कुचिपुड़ी नृत्य (Kuchipudi Dance in Hindi) (Classical dance of Andhra Pradesh)
कुचिपुड़ी शास्त्रीय
नृत्य (Kuchipudi Classical Dance) का उदगम भारत के आन्ध्रप्रदेश के कृष्णा ज़िले में
हुआ, जहां यह 7वीं शताब्दी के आरंभ में भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप फला-फूला। 16वीं
शताब्दी के कई शिलालेख और साहित्यिक स्रोतों में कुचिपुड़ी नृत्य (Kuchipudi Dance)
का उल्लेख मिलता है। ऐसी धारणा है कि तीर्थ नारायण यति और उनके शिष्य सिद्धेन्द्र योगी
ने व्यवस्थित तरीके से इसे 17वीं सदी के आस पास विकसित किया।
इस नृत्य का
नाम कृष्णा जिले में स्थित कुचिपुड़ी गांव के नाम पर रखा गया है। प्राचीन समय में कुचिपुड़ी
गांव के ब्राह्मण इस नृत्य का अभ्यास किया करते थे जो उस समय उनका एक पारंपरिक नृत्य
था।
प्राचीन परंपरा
के अनुसार कुचीपुडी नृत्य (Kuchipudi Dance) मूलत: केवल ब्राह्मण समुदाय पुरुषों द्वारा
किया जाता था। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। पुरुष ही नृत्य
प्रदर्शन के समय महिलाओं का अभिनय करते थे ।
कुचीपुडी कला
का जन्म अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक
लम्बे समय से यह कला केवल आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्सव के अवसर
पर प्रदर्शित की जाती थी। इस नृत्यकला में मुख्यत: भगवान विष्णु और श्री कृष्णा पर
आधारित वैष्णव परंपरा को दर्शाया जाता है । भागवत
एवं पुराण इसका मुख्य आधार है| इस नृत्य का मुख्य उद्देश्य वैदिक एवं उपनषदों में वर्णित
धर्म एवं अध्यात्म का प्रचार प्रसार करना है| कुचीपुडी कला तमिलनाडु में होने वाले “भगवत मेला” से बहुत मिलता- जुलता प्रतीत होता है।
इसकी वेशभूषा
सामान्यतः भरतनाट्यम नृत्यशैली के प्रकार की होती है| कुचिपुड़ी नृत्य की खासियत यह है कि कलाकार इसे
पीतल कि थाली पर पैर रखकर और सिर पर पानी भरे कलश रखकर नृत्य करते है। कुचिपुड़ी नृत्य
में प्रत्येक अभिनयकर्ता के प्रवेश के लिए एक गीत होता है, जिसके द्वारा वह अपना का परिचय कराता है।
5. ओडिसी नृत्य (Odissi Dance in Hindi) (Classical
dance of Odisha)
ओड़िसी
नृत्य की उत्पति मंदिर में नृत्य
करने वाली देवदासियों से पूर्वी भारत के उड़ीसा राज्य में हुआ। शास्त्रीय नृत्य का ये
रूप मुख्यतः स्त्रियों द्वारा किया जाता है।
ओडिसी नृत्य अपने शुरूआती रूप में महरिस (मंदिरों की देवदासियां) द्वारा मंदिर के
सेवा कार्यों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। ओड़िसी शास्त्रीय
नृत्य की नींव भरतमुनि
के नाटक शास्त्र से
मिलती है। भरतमुनि के
नाट्यशास्त्र में इसे ओद्र नृत्य
कहा जाता था।
ओड़िसी नृत्य
का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। इसे ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखों में दर्शाया
गया है। कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्द्रीय कक्ष में इसका उल्लेख मिलता है। ईसा
पूर्व पहली सदी के उड़ीसा के उदयगिरि पहाड़ियों की रानीगुम्फा गुफा की मूर्तिकला से
एक नर्तकी के इस नृत्य के प्रदर्शन का पता चलता है। इसके साथ ही हिंदू मंदिरों, बौद्ध
धर्म और जैन धर्म के पुरातात्विक स्थलों से भी इस नृत्य का प्रमाण मिलता है।
इस नृत्य में
भी धार्मिक विश्वासों को आधार बनाकर नृत्य किया जाता था। ओडिशा का वैष्णव मत ओडिसी
नृत्य का मुख्य तत्व है। कृष्ण और राधा की कथा इसको विषय-वस्तु प्रदान करती है।
भगवान विष्णु के जगन्नाथ रूप की कथाओं और मिथकों को इस नृत्य में अपनाया गया
है। इसके अतिरिक्त यह नृत्य भगवान
शिव और सूर्य की कथाओं के आधार पर भी किया जाता है।
ओड़िसी मे कलाकार
विशेष मुद्राओं के साथ नृत्य प्रस्तुत करता हैं।ओडिसी नृत्य अपनी सर्पिल 'त्रिभंगी'
अथवा दृढ़ चकौर आसन जिसे चौक कहा जाता है, के
लिए प्रसिद्ध है। इसमें त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है शरीर
को तीन भागों में बांटना, सिर, शरीर और पैर; मुद्राएं और अभिव्यक्तियां भरत नाट्यम
के समान होती है।
इस नृत्य में
अंग संचालन, नेत्र संचालन, ग्रीवा संचालन, हस्त मुद्राओं, पद संचालन पर विशेष ध्यान
दिया जाता है| इसमें अंग संचालन सौम्य और सुंदर होता है। इसमें नर्तक को एक गायक और
एक ढोलवादक द्वारा साथ दिया जाता है जो पख्वाज, बासुरी और सितार बजाता है। नृत्य
संचालक भी संगीतकार के साथ बैठता है और लय पूर्ण पदों को गाता है तथा अपने मजीरों से
समय ताल का ध्यान रखता है।
ब्रिटिश शासन
के दौरान इस नृत्य पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात्
ओडिसी को पुनर्जीवित किया गया। इस पारंपरिक नृत्य को 20वीं शताब्दी के माध्य में
थिएटर कला के रूप में नया स्वरूप प्रदान किया गया।
6. मणिपुरी
नृत्य (Manipuri Dance in
Hindi) (Classical
dance of Manipur)
भारत के मणिपुर
राज्य में इसकी उत्पति और विकास हुआ। यह
नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ। इसमें प्रमुख
रूप से विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीतगोविन्द की रचनाओं की विषयवस्तुएँ उपयोग
की जाती हैं।
मणिपुरी नृत्य
मुख्यतः अपने वैष्णव थीम और राधा-कृष्ण की प्रेमलीला “रासलीला” के लिए जाना जाता है। इसके अतिरिक्त मणिपुरी नृत्य शिव, शक्ति आदि पर आधारित
कथाओं पर भी होता है । आज
भी इस नृत्य को प्रस्तुत करने के मुख्य मंचन स्थल के रूप में मणिपुर के मंदिर
जाने जाते हैं। इस नृत्य में 64 प्रकार के रासों का प्रदर्शन
किया जाता है।
मणिपुरी नृत्य
भारत के अन्य नृत्यो की तुलना में अधिक अंतर्मुखी है। इसका प्रदर्शन एक नृत्य दल
द्वारा किया जाता है, जिसमे सभी एक विशेष क़िस्म के पोशाक “कुमिल” पहने हुए होते हैं । मणिपुरी नृत्य में नर्तकों की मुद्राएँ
मुख्यतः उसके हाथ और शरीर के ऊपरी भागों पर आधारित होती है। इसमें हल्की-हल्की मुख-मुद्राएं
होती हैं।
इसमें प्रयुक्त
वाद्य यंत्र करताल, मजीरा और दोमुखी ढोल या मणिपुरी मृदंग होते हैं। मणिपुरी नृत्य
मंदिर प्रांगणों में रात भर चलने वाला प्रदर्शन होता है। मणिपुरी नृत्य ज्यादातर समूह
में ही किये जाते हैं, परन्तु रासलीला के कुछ नृत्यों का एकल प्रदर्शन एकल रूप में भी किया जाता है।
जगोई और चोलोम
मणिपुरी नृत्य की दो मुख्य शौलिया है । जगोई शैली सौम्य है जो मुख्यत: रासलीला और
इसी प्रकार की प्रस्तुतियों में मिलती है। जबकि चोलोम जोशीली, जिन्हें संस्कृत साहित्य में वर्णित लास्य
और तांडव तत्वों से संबंधित माना जाता है।
मणिपुरी नृत्य
भारत के अन्य नृत्य रूपों से भिन्न है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें
बहुत ही शांत और आकर्षित हाथ और उँगलियों के मूवमेंट होते है । इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक
भव्यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं। पैरों को भूमि पर बहुत धीरे से रखते हैं
ताकि उसकी आवाज न आए । इसमें पहने
जाने वाला पोशाक बहुत ही अलग होता है ।
इसमें एक ड्रम के आकार का स्कर्ट नीचे की ओर कलाकार द्वारा पहना जाता है ।
7. सत्त्रिया
नृत्य (Sattriya Dance in
Hindi) (Classical dance of Assam)
15वीं सदी के
असम के सत्तराओं (मठों) में वैष्णवों के बीच इस नृत्य कला का जन्म हुआ । ये मुख्यतः भगवान कृष्णा की लीलाओं
पर आधारित था । कभी कभी राम- सीता के कथाओं पर आधारित
होता है। सत्रीया नृत्य
जप, कथा, नृत्य व संवाद का समन्वय है। 15वीं सदी में भक्ति काल के सन्त और समाज सुधारक
शंकर देव (1449-1586) द्वारा प्रचारित वैष्णव और उनके शिष्य माधवदेव ने मठों में
‘अंकीया नाट’ के सह-प्रदर्शन हेतु सत्रिया नृत्य को
विकसित किया। यह नृत्य आज भी असम
के वैष्णव मठ में जीवित है।
यह भारतीय शास्त्रीय
नृत्य हाथ के इशारे की विकसित भाषा (हस्त), कदमों के प्रयोग (पाद कर्म), गति और अभिव्यक्ति
(नृत्य एवं अभिनय), तथा प्रदर्शनों पर आधारित है। इसे पहले केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था, परंतु अब इसे
स्त्रियों द्वारा भी किया जाने लगा है। इस नृत्य को वाद्ययंत्र के साथ किया जाता है । इस नृत्य में मुख्य गायक गाते हुए
अभिनय करता है और कहानियां सुनाता है जबकि नर्तकियों का एक छोटा समूह झांझ बजाते हुए
नृत्य करता है।
20वीं शताब्दी
मेंजब यह मठीय कला इसके कलाकारों द्वारा सत्तराओं (मठों) से बाहर फैली तब सत्तरिया
नृत्य भी आधुनिक रंगमंच कला के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। संगीत नाटक अकादमी
द्वारा 15 नवम्बर 2000 को इस नृत्य शैली को अपने शास्त्रीय नृत्य की सूची में शामिल
किया है।
8. मोहिनीअट्टम
नृत्य (Mohiniyattam Dance in
Hindi) (Classical
dance of Kerala)
मोहिनीअट्टम
भारत के केरल राज्य के दो प्रमुख शास्त्रीय नृत्यों (Classical Dance of India) में से एक है
। मोहिनीअट्टम नृत्य का उद्भव और
विकास केरल में हुआ
। मोहिनीअटट्म केरल के मंदिरों
में किया जाता था। इस नृत्य में भरतनाट्यम और कत्थकली दोनों के तत्त्व शामिल होते है
। मोहिनीअटट्म का प्रथम
संदर्भ माजामंगलम नारायण नब्बूदिरी द्वारा संकल्पित व्यवहार माला में पाया जाता है
जो 16वीं शताब्दी में रचा गया।
मोहिनीअट्टम
भगवन विष्णु के “मोहिनी” अवतार पर आधारित है, जिस वजह से इसे
“मोहिनीअट्टम” कहा गया है ।कहा जाता है कि समुद्र मंथन के दौरान
अमृत के लिए जब देवताओं और असुरों के बीच युद्ध चल रहा था और असुरों ने अमृत पर अपना
नियंत्रण कर लिया तो भगवान विष्णु ने असुरों को आकर्षित करने के लिए मोहिनी का रूप
धारण किया था। मोहिनी रूप ने सभी असुरों का
मन मोह लिया और असुरों से अमृत को लेकर देवताओं को दे दिया।
इस नृत्य शैली
में ' लस्य शैली ' का प्रयोग किया जाता है। “लस्य” शैली
में बहुत ही कोमल भावों को विभिन्न मुद्राओं से नृत्य के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। ये मुख्यतः एक “एकल” नृत्य फॉर्म है ।
मोहिनीअट्टम नृत्य की एक विशेषता
यह भी है कि इसे केवल महिला कलाकार द्वारा ही किया जाता है। यह एक बहुत ही कठिन नृत्य
शैली है ।
मोहिनीअट्टम नृत्य (Mohiniyattam Dance) में भगवान विष्णु के सागर-मंथन की कथा का मंचन होता है, जिसमे वे सागर मंथन के दौरान मोहिनी का रूप धारण करते हैं। मोहिनीअट्टम नृत्य का प्रारंभ चोल्केत्तु के गायन के साथ शुरू होता है। इसमें इस्तेमाल होने वाले गीत मुख्यतः “मणिपर्व” नामक भाषा में होते है, जो संस्कृत और मलयालम से मिल कर बनी है । मूलभूत नृत्य ताल चार प्रकार के होते हैं: तगानम, जगानम, धगानम और सामीश्रम। इसमें प्रयोग किए जाने वाले संगीत वाद्य है- एड्डक्का ताल वाद्य, मृदंगम, वीणा, बांसुरी और कुझीतालम या सिंबल।
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