दल-बदल विरोधी कानून | Anti Defection Law in Hindi

दल-बदल विरोधी कानून (Dal Badal Kanoon UPSC) (Anti Defection Law UPSC in Hindi)

Table of Contents

  • क्यों लाया गया दल-बदल विरोधी कानून?
  • दल-बदल विरोधी कानून क्या है?
  • 91वां संविधान संशोधन अधिनियम,2003
  • किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू
  • दल-बदल विरोधी कानून पर बनी समितियाँ
  • वर्तमान समय में दल बदल कानून की प्रासंगिकता
  • महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर (QnA)

 

 

क्यों लाया गया दल-बदल विरोधी कानून?/ दल-बदल कानून की ज़रूरत क्यों पड़ी?

भारत में आज़ादी के कुछ ही वर्षों के बाद जनप्रतिनिधियों (विधायकों और सांसदों) के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। यह महसूस किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है।


भारत में 1960-70 के दशक में आया राम गया राम की राजनीति काफी प्रचलित हो चली थी। 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल बदलकर दल-बदल मुद्दे को प्रकश में लाने का काम किया था। हरियाणा की हसनपुर सीट से चुनकर आए निर्दलीय विधायक गया लाल अपनी जीत के तुरंत बाद कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके पन्द्रह दिन के अंदर ही गया लाल ने 3 बार पार्टियां बदलीं। गया लाल पहले कांग्रेस से संयुक्त मोर्चे में गए, फिर वापस कांग्रेस में आए और उसी दिन फिर संयुक्त मोर्चे में चले गए।


जब गया लाल संयुक्त मोर्चे से वापस कांग्रेस में आए तो पार्टी के एक नेता ने कहा किगया राम अब आया रामहो गए हैं। इसके बाद जब वे फिर संयुक्त मोर्चे में चले गए तो यशवंत राव चव्हाण ने कहा किआया राम, गया रामहो गया। इसके बाद दल-बदल की घटनाओं के दौरानआया राम, गया रामका यह मुहावरा आम हो गया।


दल-बदल की बढ़ती घटनाओं के साथ ही राजनीतिक अस्थिरता में भी तेज़ी आई। सदन के प्रति लोगों की आस्था में कमी दिखने लगी। राजनीतिक दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले जनप्रतिनिधियों (विधायकों और सांसदों) को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की आवश्यकता महसूस होने लगी।अंततः वर्ष 1985 में संविधान संशोधन के माध्यम से दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।

 

 


दल-बदल विरोधी कानून क्या है?

वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश मेंदल-बदल विरोधी कानून’ (dal badal kanoon) पारित किया गया। 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा सांसदों तथा विधायकों द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे दल में दल-परिवर्तन के आधार पर निरर्हता (Disqualify) के बारे में प्रावधान किया गया है।


इसके लिए संविधान के चार अनुच्छेदों (अनुच्छेद 101, 102 और अनुच्छेद 190, 191) में परिवर्तन किया गया है तथा संविधान में एक नयी अनुसूची दसवीं अनुसूची जोड़ी गई है। इस अधिनियम को सामान्यतयादल-बदल कानून (anti defection law)’ कहा जाता है। खासकर के अनुच्छेद 102(2) और 191(2) दसवीं अनुसूची से सम्बद्ध है जिसमें सांसदों एवं विधायकों को राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल के आधार पर अयोग्य घोषित करने का प्रावधान है।


भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूचीदल-बदल क्या हैऔर दल-बदल करने वाले सांसदों तथा विधायकों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है।

 

दल-बदल विरोधी कानून के मुख्य प्रावधान:

भारत की संसद ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52 वां संविधान संशोधन एक्ट (1985) सर्वसम्मति से पारित किया। इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान दिए गए हैं:


निम्न परिस्थितियों में संसद/विधानसभा के सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जाएगी (Disqualification):


1. एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से जिस राजनीतिक दल से निर्वाचित हुआ है, उस राजनीतिक दल की सदस्यता स्वयं छोड़ दे।


2. यदि वह उस सदन में अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विपरीत मत देता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है तथा राजनीतिक दल से उसने 15 दिनों के भीतर क्षमादान न पाया हो।


3. यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के 6 महीने की समाप्ति के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।


4. यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।

 


कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा (दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद)(Exceptions) :


5. किसी राजनीतिक दल के विघटन (दल में टूट) पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी। दल में टूट तब मानी जाती है जब एक-तिहाई (1/3) सदस्य मिलकर सदन में एक नये दल का गठन कर लेते हैं।


6. विलय की स्थिति में भी दल-बदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई (2/3) सदस्य उसकी स्वीकृति दें। यदि उसका कोई सदस्य विलय से बाहर होना चाहता है तो उस पर दल बदल कानून लागू नहीं होगा।


7. दल-बदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तेक्षप करने का अधिकार नहीं होगा।


8. अगर कोई सदस्य स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।


9. कोई पार्टी किसी सदस्य की पार्टी सदस्यता समाप्त कर दे तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त नहीं की जाएगी।


10. यदि किसी सदस्य को पार्टी द्वारा निष्कासित किया जाये तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त नहीं की जाएगी।

 

 


91वां संविधान संशोधन अधिनियम,2003

91वें संविधान संशोधन,2003 के तहत दल-बदल कानून 1985 (dal badal kanoon 1985) में निम्नलिखित बदलाव किये गए हैं;


1. मंत्रिपरिषद का आकार केंद्र एंव बड़े राज्यों संसद में सदन की सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।(अनुच्छेद-75)


2. बड़े राज्यों में मंत्रिपरिषद का आकार सदन की सदस्य संख्या का 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा। लेकिन छोटे राज्यों में मंत्रिपरिषद की न्यूनतम संख्या 12 से कम नहीं होनी चाहिए (अनुच्छेद-164)


3. जहां 91वां संविधान संशोधन अधिनियम,2003 लागू होने के समय मंत्रिपरिषद का आकार 15 प्रतिशत से ज्यादा है, इस अधिनियम के लागू होने के 6 महीने के अंदर मंत्रिपरिषद के आकार को 15 प्रतिशत तक करना होगा।


 4. 91 वां संवैधानिक संशोधन, 2003 अधिनियम द्वारा 1985 के 52वें संविधान संशोधन के एक-तिहाई (1/3) वाले प्रावधान को हटा दिया गया है। अब एक-तिहाई सदस्यों के विभाजन को मान्यता नहीं दी जा सकेगी। इस आंकड़े को दो तिहाई (2/3) कर दिया गया।


5. दल-बदल करने वाले सदस्य किसी भी प्रकार का सरकारी एंव लाभ का पद प्राप्त नहीं कर सकता है।


6. सदन की सदस्यता हासिल करने के लिए फिर से चुनाव जीतना अनिवार्य है।

 

 

जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित करने की शक्ति किसके पास होती है?/ स्पीकर (अध्यक्ष) का अधिकार

1. दल-बदल से उत्पन्न अयोग्यता से संबंधीत सभी प्रश्नों का निर्णय उसी सदन का अध्यक्ष करता है जिस सदन का ये मामला है। प्रारंभ में इस कानून के अनुसार, अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता था तथा इस पर किसी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता था। किंतु किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हू मामले (1993) में उच्चतम न्यायालय ने इस उपबंध को असंवैधानिक घोषित कर दिया और अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सदन के अध्यक्ष द्वारा दसवीं अनुसूची के आधार पर अयोग्यता से संबंधीत किसी प्रश्न पर दिया गया निर्णय न्यायिक समीक्षा योग्य होगी।


सदन का अध्यक्ष किसी पार्टी से जुड़ा होता है इसीलिए इसकी संभावना बहुत ज्यादा रहती थी कि सदन का अध्यक्ष पार्टी हित में किसी दूसरे राजनीतिक दल के सदस्य को अयोग्य घोषित कर दे या अपने दल के किसी सदस्य को अयोग्य न ठहराए। न्यायिक समीक्षा के दायरे में आने से इसमें काफी सुधार देखा जा सकता है


2. यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित किसी सदस्य के बारे में दल-बदल से उत्पन्न शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है।

 

 

किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (Kihoto Hollohan vs Zachillhu)

वर्ष 1993 के किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा था कि सदन के अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा। सदन के अध्यक्ष के निर्णय का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।


विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय दुर्भावना, दुराग्रह, संवैधानिक जनादेश और प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध पाए जाने की स्थिति में न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि स्पीकर द्वारा किसी सदस्य को अयोग्य घोषित करना सदन की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। बल्कि यह एक अर्धन्यायिक मामला है। इसलिए न्यायपालिका इसकी समीक्षा करेगी। इसके बाद से सदस्यों की अयोग्यता का न्यायिक पुनरावलोकन होता है।

 

 


दल-बदल विरोधी कानून पर बनी समितियाँ

दिनेश गोस्वामी समिति:

आयोग्यता संबंधी निर्णय पर वर्ष 2002 में दिनेश गोस्वामी समिति और न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता वाली संविधान समीक्षा समिति ने निम्न सिफारिश की थी।

  • दल-बदल कानून के तहत प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा लिया जाना चाहिये।
  • संबंधित सदन के मनोनीत सदस्यों को उस स्थिति में अयोग्य ठहराया जाना चाहिये यदि वे किसी भी समय किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं।


दिनेश गोस्वामी समिति के अनुसार अयोग्यता उन मामलों तक सीमित होनी चाहिए जहाँ,

(a) एक सदस्य स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है,

(b) एक सदस्य वोट देने से परहेज करता है, या वोट के अविश्वास प्रस्ताव में पार्टी व्हीप के विपरीत वोट करता है

 


विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट:

वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि-

  • चुनाव से पूर्व दो या दो से अधिक पार्टियाँ यदि गठबंधन कर चुनाव लड़ती हैं तो दल-बदल विरोधी प्रावधानों में उस गठबंधन को ही एक पार्टी के तौर पर माना जाए।
  • राजनीतिक दलों को व्हिप (Whip) केवल तभी जारी करनी चाहिये, जब सरकार की स्थिरता पर खतरा हो। जैसे- दल के पक्ष में वोट न देने या किसी भी पक्ष को वोट न देने की स्थिति में अयोग्य घोषित करने का आदेश। 


चुनाव आयोग का मत:

इस संबंध में चुनाव आयोग का मानना है कि चुनाव आयोग  की भूमिका व्यापक होनी चाहिये। अतः दसवीं अनुसूची के तहत आयोग के बाध्यकारी सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने की व्यवस्था की जानी चाहिये।

 

 


वर्तमान समय में दल बदल कानून की प्रासंगिकता

पक्ष में तर्क/ दल बदल कानून का लाभ (Benefits of Anti Defection law in Hindi)

1. दल-बदल विरोधी कानून ने सरकार को स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 1985 से पूर्व कई बार यह देखा गया कि जनप्रतिनिधिअपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर दूसरी नई सरकार बना लेते थे, जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था। दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास संबंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया है। शासन पर अधिक एकाग्रता संभव है।


2. दल बदल कानून के प्रावधानों ने धन या पद लालच के कारण होने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और असमय चुनाव के कारण होने वाले अतिरिक्त व्यय को नियंत्रित करने में भी सहायता की है।


3. दल बदल कानून ने राजनीतिक दलों के प्रभाव में वृद्धि की है इसके साथ ही राजनीतिक पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है।


4. दल बदल कानून के कारण राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने में मदद मिलती है।


5. दल बदल कानून राजनीतिक दलों को विलय की स्थिति में अथवा किसी दल में टूट होने पर,लोकतांत्रिक तरीके से पुनर्समूहन (Re-grouping) की सुविधा प्रदान करता है।

 


विपक्ष में तर्क/संविधान की दसवीं अनुसूची की आलोचना

1. संविधान के अनुसार, सांसद या विधायक सदन में मुक्त रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। दल-बदल कानून सरकार में स्थायित्व के लिए लाया गया था लेकिन दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग  विचारों को नहीं सुना जाता है।  इसके कारण अंतर-दलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है।


2. यह कानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात्पार्टी राजको बढ़ावा देता है। दल बदल कानून राजनीतिक पार्टी के विचारों व कार्यों को ही लागू करने के लिए सदस्यों को बाध्य करता है चाहे उस पर सदस्यों का विचार भिन्न हो हो।


3. दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिये इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जनप्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी उनकी सदस्यता खतरे में नहीं पड़ती।


4. यह कानून सदन में वोटिंग के दौरान विधायकों या सांसदों को अपने विवेक या फिर अपने मतदाताओं के हितों के हिसाब से फैसला करने से रोकता है। कई बार जनप्रतिनिधि इस कानून की वजह से अपने क्षेत्र के लोगों और परिस्थितियों के अनुसार अपना मत व्यक्त नहीं कर पाते क्योंकि उनके दल का मत उससे भिन्न हो सकता है।


5. इसने छोटे पैमाने पर दल-परिवर्तन पर रोक लगाई किंतु बड़े पैमाने पर होने वाले दल-परिवर्तन को कानूनी रूप दिया।


6. यह किसी जनप्रतिनिधि द्वारा विधानमण्डल के बाहर किए गए उसके कार्यकलापों हेतु उसके निष्कासन की व्यवस्था नहीं करता है।


7. निर्दलीय तथा नामनिर्देशित सदस्यों के बीच भेदभाव अतार्किक है | यदि नामनिर्देशित सदस्य अपने सदन शपथ ग्रहण करने के 6 महीने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है| यदि कोई निर्दलीय सदस्य चुनाव जीतने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है|

 

 


महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर (QnA)

Q. दलबदल का क्या अर्थ है?

A. सांसदों तथा विधायकों द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे दल में राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल-परिवर्तन को दलबदल कहते हैं।

 

Q. क्या है संविधान की दसवीं अनुसूची? अनुसूची 10 में क्या है/10 वी अनुसूची क्या है?

A. भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूचीदल-बदल क्या हैऔर दल-बदल करने वाले सांसदों तथा विधायकों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है। इसका उद्देश्य राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल करने वाले जन-प्रतिनिधियों (सांसदों तथा विधायकों) को अयोग्य करार देना है, ताकि संसद की स्थिरता बनी रहे।

 

Q. क्या पीठासीन अधिकारी पर दल बदल विरोधी कानून लागू होता है?

A. अगर कोई सदस्य स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

 

Q. दल-बदल विरोधी कानून किस प्रधानमंत्री के समय में लागू हुआ?

A. दल-बदल विरोधी कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय में लागू हुआ। 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, द्वारा सांसदों तथा विधायकों द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे दल में दल-परिवर्तन के आधार पर निरर्हता (Disqualification) के बारे में प्रावधान किया गया है।

 

Q. दल बदल कानून किसके द्वारा लागू होता है?

A. दल बदल कानून सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) या सभापति द्वारा लागू होता है। दल-बदल कानून लागू करने के सभी अधिकार सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) या सभापति को दिए गए हैं।

 

Q. दल-बदल कानून किस संशोधन द्वारा पास किया गया/ दल विरोधी कानून किस संविधान संशोधन से संबंधित है?

A. दल-बदल कानून 52वें संविधान संशोधन अधिनियम,1985 द्वारा द्वारा पास किया गया

 

Q. दल-बदल कानून किस अनुसूची में है?

A. दल-बदल कानून संविधान की 10वीं अनुसूची में है।

 

Q. दल बदल निरोधक अधिनियम किस तिथि को पारित हुआ?/ दल बदल कानून कब पारित हुआ?

A. दल बदल निरोधक अधिनियम 15 फरवरी, 1985 को पारित हुआ।

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